जिस प्रकार घड़ी की सूई पल पल आगे बढ़ती जाती है उसी प्रकार मेरे मन का भाव भी बढ़ता जाता था, तब मैं मुश्किल से ग्यारह साल की रही होगी। मेरी आवारा और भोली कल्पना एक दिन उड़ान भरते हुए मेरे स्कूल टीचर पर जाकर ठहर गयी।
विपरित लिंग के प्रति यह मेरा पहला आकर्षण था।
मैं उनके हाव भाव और क्रियाकलापों को बड़े ध्यान से देखती थी। वे मुझे बहुत अच्छे लगते थे।
उन्हीं दिनों मेरी बड़ी बहन की शादी की बात चल रही थी। मेरे पिता ने दो लड़कों के प्रस्ताव को रद्द कर दिया था जबकि मेरी बहन ने तीसरे लड़के को नकार दी थी।
मेरे मन में बहुत अबोध विचार आते जाते मगर मैं किसी से कुछ कहने की हिम्मत नहीं करती थी।
उस दिन तो मैं टीचर पर मर ही मिटी थी जब हमारे स्कूल में annual Function हुआ था। टीचर ने हम सब स्टूडेंट को साथ लेकर बहुत ही शानदार प्रोग्राम प्रस्तुत किया था। पूरे स्कूल के स्टाफ़ और बच्चों के पेरेंट्स ने टीचर को खूब बधाई दी थीं ।
मैं भी स्कूल के लॉन से एक गुलाब के फूल तोड़ कर टीचर को देते हुए उन्हें बधाई दी थी। हालांकि माली फूल तोड़ने की शिकायत हैडमास्टर से की थी, मगर उस वक्त मुझे किसी बात की परवाह नहीं थी।
मेरे सामने तो सिर्फ टीचर का चमकता हुआ चेहरा था।
उसी दिन से मैंने मन ही मन संकल्प कर लिया था कि अगर मेरी बहन की शादी होगी तो सिर्फ़ मेरे टीचर से ही होगी।
इस बात को लेकर मेरे अबोध मन में कितना स्वार्थ था। मैं कुछ कह नहीं सकती थी मगर शादी की बात अपनी माँ से कहने से पहले ही मानो किसी ने मन भर पिघला हुआ बर्फ़ मेरे ऊपर डाल दी हो।
हुआ यों कि उस दिन प्रोग्राम के बाद टीचर हमारे गाँव ही में एक रिश्तेदार के यहां ठहर गये।दूसरे दिन मैं ने सुना कि टीचर एक लड़की को देखने गये हैं।
मेरी कल्पना का रंग तब धूमिल हुआ जब टीचर के रिश्तेदार से पता चला कि टीचर ने मेरे ही गाँव की एक लड़की पसंद कर ली है और अगली छुट्टी मिलते ही दोनों की शादी हो जायगी।
जाने क्यों दूसरी लड़की की बात सुनते ही मेरे मन से टीचर का मोह उतर गया। सूई की घड़ी का वेग तो नहीं बदला मगर मैं बचपन छोड़ कर यौवन की दहलिज़ पर कदम रख चुकी थी।
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