अंत भला तो सब भला
CANNES FESTIVALS 2024भारतीय फिल्म विजेता पायल कपाड़िया आजकल खूब चर्चा में है।उसकी लिखी और निर्देशित फिल्म (All we imagine as light) खूब limelight बटोर रही है।
चलो देखें ऐसा क्यों है?
सोशल मीडिया में ऐसा बहुत सवाल उठ रहे हैं कि आखिर क्यों इतने देर से अर्थात् 30 साल के बाद Cannes Festivals की नज़र में भारतीय फिल्म आयी।
ज्ञात हो कि भारतीय सिनेमा मण्डप ने 1946 में Cannes Films Festival में अपनी पहचान एक सामाजिक यथार्थ वादी फिल्म (नीचा नगर ) Grand Prix du Festival International du Film हासिल होने वाली पहली भारतीय फिल्म से अपनी पहचान बनाई।
(नीचा नगर ) का निर्देशन चेतन आनंद ने किया था।
नीचा नगर की कहानी में कैसे एक बड़ा आदमी गरीबों को, एक तरफ गंदे पानी पीने पर मजबूर करता है। गरीब लोग जब बीमार होकर अस्पताल जाते हैं तो वह उन लोगों की मदद करके भगवान का दर्जा पाता है । लेकिन एक चरखा कातने और गांधी टोपी पहनने वाला आदमी उससे भीड़ जाता है।
दूसरी बार 1956 में सत्यजीत राय की 'पाथेर पांचाली' को यह पुरस्कार मिला।
1994 में (स्वाहम) मलयालम फिल्म Cannes Films Festivals में आमंत्रित किया गया था।
उसके बाद से जैसे सन्नाटा सा छा गया। अब सवाल उठता हैं कि क्या भारतीय फिल्म कान्स महोत्सव में जाने के लायक नहीं थे?
इन तीस सालों के दौरान कितनी अच्छी अच्छी पिक्चर बनी। कितनी संवेदनशील टॉपिक पर पिक्चर बनी।
आगे बढ़ने से पहले पंचतंत्र की एक कथा का जिक्र करना एकदम प्रसंग के अनुकूलन है।
शशक और खरगोश की दौड़।
शशक अर्थात् खरगोश जो बहुत चंचल और र दौड़ने में बहुत तेज़ होता है। जब वह दौड़ता है तब उसे किसी की परवाह नहीं होता। शिकारी कहां घात लगाए बैठा है उसे नज़र नहीं आता। वह थककर जैसे ही बिल की तरफ जाता है शिकारी उसे दबोच लेता है। इसके विपरीत कछुआ अपने धीमी चाल से चलता है। रास्ते में आशंका देखकर सिमटकर पत्थर बन जाता है।शिकारी की नज़र न आते वह अपने गन्तव्य तक पहुंच जाता है।
ऐसा नहीं कि Cannes Films Festival में भारतीय फिल्म नहीं पहुंचती थी लेकिन किसी का रिकार्ड तोड़ना शायद इतना आसान नहीं था।
इस बार पायल कपाड़िया ने तीस साल का वह रिकॉर्ड तोड़कर Palm d'or अपने कब्जे में आखिर कर ही लिया।
मुंबई में प्रभा नाम की एक नर्स अपनी दिनचर्या में उथल-पुथल तब मच जाती है जब उसे अपने अलग हुए पति से एक ricecooker उपहार मिलता है। उसकी छोटी रूममेट अनु अपने बॉयफ्रेंड के साथ अंतरंग होने के लिए शहर में जगह खोजने की कोशिश करती है, लेकिन बम्बई जैसे शहर में वह नाकाम रहती है। तमाम उल्झनों के बावजूद वे समुद्र तट पर एक शहर की यात्रा में उन्हें अपनी इच्छाओं को प्रकट करने के लिए एक जगह खोजने का मौका देती है।
शहर की आपाधापी में कैसे तीन महिलाएं संघर्ष करती हुई सुकून के दो पल की तलाश में रहती है।
ऐसी मार्मिक कहानी Cannes Films Festival में दिखाने के बाद आठ मिनट तक ताली बजती रही। यही बात फिल्म की सफलता की सबसे बड़ी उपलब्धि थी।
आशा ने आने वाले दौर में भारतीय मण्डप ऐसे ही मार्मिक फिल्मों को प्रस्तुत करती रहेगी।
इसीलिए कहते हैं__ "अंत भला तो सब भला"।