मेरा आइना.....!
मेरे चेहरे की नहीं...!
मेरी रूह की झलक कहीं ज्यादा दिखलाता है.
हर शख्स रूप का पुजारी...!
जबकि-
मेरा आइना....!
मुझे फीकी मयंक सा-
भोर के उजाले में...!
मेरा अक्ष दिखलाता है..!
मेरा एक कदम जश्न-ए-दिवार से टकराता..!
जबकि-
दूसरा कदम....!
एक पारदर्शी दिवार पर रूकता है...!!.
मैं लड़ती किससे...!
मेरे वजूद का क्या हश्र होता...?
मैं परेशां हूँ....!
इस कदर....!
और पूछती हूँ सबसे..!
मेरा आइना टूटता क्यों नहीं है...?
_कुंती.
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